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ग़ज़ल
फूलों में भी अक्सर खार ढूंढता हूँ
तुम जैसे दोस्त दो-चार ढूंढता हूँ।

फुर्सत नहीं कि अपने गिरेबाँ में झाँकूँ
गैरों में मुकम्मल किरादर ढूंढता हूँ।

हादसे हर रोज मेरी आँखों से गुजर जाते हैं
मगर मैं पुराने अख़बार ढूंढता हूँ।

घर के चराग ने ही आग लगायी थी आशियाने में
मैं फ़ितरतन पड़ोस में गद्दार ढूंढता हूँ।

दौड़ते हैं किनारों की तरफ सफर-ए समन्दर में सभी
इक मैं हूँ कि बस मझधार ढूंढता हूँ।

बे-नशा है मै-खानों में मै-कशी भी अब तो
आँखों में तेरे ही मैं खुमार ढूंढता हूँ।

मेरे हाथों से अपने चहरे को छुपाया था तुमने
अब तक हथेली पर तेरा निगार* ढूंढता हूँ।

*निगार-चित्र
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डॉ.राजीव जोशी
बागेश्वर।

Comments

  1. क्या बात है । बहुत सुन्दर।

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  2. आदरणीय राजीव जी -- इतनी अच्छी रचनाएँ लिखते हैं और ब्लॉग का नाम फिजूल टाइम्स -- कृपया कोई सार्थक नाम रखें -- बड़ी अच्छी लगी आपकी रचना --सभी शेर सार्थक हैं | सादर शुभकामना --

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  3. लाजवाब गजल...
    एक से बढकर एक शेर....
    वाह!!!

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  4. वाह ! लाजवाब !! बहुत खूब आदरणीय ।

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  5. क्या बात ...
    बहुत लाजवाब बात कह रहा है हर शेर ... व्यंग की तेज़ धार लिए ...

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