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ग़ज़ल (करके सब दरकिनार देखा है)

ग़ज़ल *******₹  करके सब दरकिनार देखा है हमने नफरत में प्यार देखा है। नज़रें हटती नहीं नज़ारों से इसलिए बार बार देखा है। प्यार दो आखों से नहीं दिखता करके आंखों को चार देखा है। लूट कर दिल कोई तो गुजरा था हमने गर्दो-गुबार देखा है। जिसके सिर पर भी माँ का आँचल हो उसको ही मालदार देखा है। ******** राजीव जोशी बागेश्वर।

Books Rajeev Joshi राजीव जोशी

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Dr Rajeev Joshi राजीव जोशी

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ग़ज़ल

                  ग़ज़ल ************************* ये हालात मुश्किल बढ़ाएंगे लेकिन वही आशियाँ फिर बसाएंगे लेकिन। छुपा लें वो चेहरा ज़हां से भले ही कहाँ तक वो नज़रें चुराएंगे लेकिन। जला कर बहुत खुश हैं वो बस्तियों को महल कैसे अपने बचाएंगे लेकिन। भले ही उड़ी नींद अभी हालतों से नए ख़्वाब आंखों में लाएंगे लेकिन। दबा लें वो आवाज मेरी भले ही हक़ीक़त कहाँ तक छुपाएंगे लेकिन। ***** काफ़िया-आएंगे रदीफ़- लेकिन बह्र- 122  122  122  122 *********** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर

सेफ्टी वॉल्व (कहानी/संस्मरण)

                                 *सेफ्टी वॉल्व*      ×× बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा 11 में पढ़ता था, सन 1992-93। घर से दूर पिताजी के साथ हम दो भाई रहते थे। पिता स्कूल में अध्यापक थे। भाई कक्षा 6 या 7 में पढ़ता था। किराए के मकान में, घर से दूर पिता का सख्त अनुशासन, यह सभी स्थितियां पिंजरे में कैद उस तोते जैसी थी जो बाहर के नजारे देख कर जोर जोर से टें-टें करता है। दो-चार कक्षा के मित्र थे जो तीन किलोमीटर की परिधि में रहते थे। उनमें एक मित्र था भुवन, जिसके पिताजी की एक छोटी सी दुकान थी, उसी के पीछे बाकी परिवार रहा करता था। उसके दुकान और घर की दूरी मेरे कमरे से लगभग दो सौ मीटर होगी। जब भी मेरे पिताजी स्टेशन से बाहर जाते या जाने की संभावना होती तो भुवन और अन्य मित्रों को संभावित 'आजादी' की तिथि पूर्व में बता दी जाती थी। संभावित तिथि को मेरे मित्र, मेरे घर के आस-पास किसी बहाने से चक्कर लगाकर कंफर्म करते कि, हम दोनों भाई अकेले हैं या नहीं? जब उन्हें लगता कि हम अकेले हैं तो बेधड़क दरवाजे पर आकर आवाज लगाते, "और राजीव! क्या कर रहा है?"  उनकी इस आवाज के लिए मेरे कान सदैव इंत

जय माँ भारती

मुहब्बत मुल्क से कितनी मैं करता हूँ बताता हूँ लहू से रंग भरता हूँ तिरंगा जब बनाता हूँ। तिरंगा आन है मेरी तिरंगा शान है मेरी इसीका मैं कफ़न पहनूँ इसीको छत बनाता हूँ। कोई जब पूछता है मुझसे घर और माँ के बारे में मैं अपनी भारती माँ का उसे नक्शा दिखाता हूँ। मुकुट सिर पर हिमालय का चरन रज धो रहा सागर तिरंगे से मैं अपनी माँ के हृदय को सजाता हूँ। तवक्को ईट गारे के मकानों की नहीं मुझको मैं सबको साथ लेकर राष्ट्र नामक घर बनाता हूँ। ***** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।