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फ़िज़ूल ग़ज़ल ******* वक़्त बदले तो रिश्ते बदल जाते हैं ख्वाहिशें बढ़ी तो अपने बदल जाते हैं जरूरत के मुताबिक कहाँ सभी को मिलता है ज़मीं कम पड़े तो नक्शे बदल जाते हैं कल तक जो मन्दिर का था, आज मस्ज़िद का हो गया सियासत है ये साहब, यहाँ मुद्दे बदल जाते हैं दूसरों पे थी तो खूब आदर्श था जुबाँ पर बात अपने पे आये तो चश्मे बदल जाते हैं किरदारों को तो हमने खूब बदलते देखा है यहाँ जरूरत के मुताबिक मगर किस्से बदल जाते हैं ख्वाबों, खयालों  से ज़िन्दगी नहीं चलती हुज़ूर आफ़त सर पर आए तो ज़ज़्बे बदल जाते हैं। ****** डॉ.राजीव जोशी बागेश्वर
फ़िज़ूल ग़ज़ल ****कुछ खबर नहीं  कब आ गए वो ज़िन्दगी में कुछ खबर नहीं हटती नहीं है उनसे तो इक पल नज़र नहीं। पूछो तो वो इंकार ही करते रहे सदा फिर देखते हैं क्यों वो महब्बत अगर नहीं। अंदाज़ हो गया है भटकते हुए मुझे तेरे बगैर दिल का कहीं कुछ बशर नहीं। तेरे हवाले है ये सफर अब मेरे सनम कश्ती को मेरी ले के जा जहाँ भँवर नहीं। तेरे बिना मेरा भी' तो' कुछ हाल यूँ हुआ पैरों पे' खड़ा धड़ है मगर जैसे' सर नहीं। *†*** डॉ.राजीव जोशी बागेश्वर।
©©© ग़ज़ल फूलों में भी अक्सर खार ढूंढता हूँ तुम जैसे दोस्त दो-चार ढूंढता हूँ। फुर्सत नहीं कि अपने गिरेबाँ में झाँकूँ गैरों में मुकम्मल किरादर ढूंढता हूँ। हादसे हर रोज मेरी आँखों से गुजर जाते हैं मगर मैं पुराने अख़बार ढूंढता हूँ। घर के चराग ने ही आग लगायी थी आशियाने में मैं फ़ितरतन पड़ोस में गद्दार ढूंढता हूँ। दौड़ते हैं किनारों की तरफ सफर-ए समन्दर में सभी इक मैं हूँ कि बस मझधार ढूंढता हूँ। बे-नशा है मै-खानों में मै-कशी भी अब तो आँखों में तेरे ही मैं खुमार ढूंढता हूँ। मेरे हाथों से अपने चहरे को छुपाया था तुमने अब तक हथेली पर तेरा निगार* ढूंढता हूँ। *निगार-चित्र ©©©© डॉ.राजीव जोशी बागेश्वर।
फ़िज़ूल  ग़ज़ल ******** कब कहाँ कैसे कोई बात कही जाती है ये हुनर हो तो हर इक बात सुनी जाती है। आप महफ़िल में जो आए तो खिले हैं चहरे आप जाते हो तो होठों की हँसी जाती है। कौन सी डोर है जो दिल को हमारे बांधे क्यों ये बरबस ही' तेरी ओर खिंची जाती है। सीख लो ये है महब्बत का चलन दिलवालो आँख से' दिल की' तो' हर  बात कही जाती है। जब भी लेता है कोई नाम तेरा मेरे सनम तेरी खुशबू मेरी सांसों में घुली जाती है। **** राजीव जोशी फिजूल टाइम के लिए।
1222×4 वज़्न की फ़िज़ूल ग़ज़ल ********* ख़ुदा तेरे जहाँ में हो यही बाँकी निशाँ मेरा रहे क़दमों तले धरती वो सर पर आस्माँं मेरा। समझ आऐंगी इक दिन तुमको ये बातें मेरी सारी अभी कुछ तल्ख लगता है ये अंदाज़े बयाँ मेरा। मेरा मुझमेँ नहीं कुछ भी दिया सब तेरे हाथों में मुकद्दर फिर क्यों लेता है यहाँ अब इम्तिहाँ मेरा नहीं ये ईंट पत्थर का है केवल ढेर समझो तुम इमारत है ये ख्वाबों की ये ही आशियाँ मेरा। चमन वालो जरा कह दो दिशाओं में पड़ोसी से यहाँ महफूज है हर गुल जगा है बागबाँ मेरा। **** डॉ.राजीव जोशी बागेश्वर।

फ़िज़ूल ग़ज़ल 1

फ़िज़ूल ग़ज़ल ********** बच्चे घरों के' जब बड़े जवान हो गए तब से बुजुर्ग अपने बेजुबान हो गए कुदरत को छेड़ कर हमें यूँ क्या मिले भला खुद ही तबाह होने का सामान हो गए देखो सियासतों का रंग क्या गज़ब हुआ जितने भी' थे' शैतान, वो शुल्तान हो गए यूँ तो किसी भी हुक़्मराँ पे है यकीं नहीं अच्छे दिनों की बात पे क़ुर्बान हो गए कहते थे' दिखावा जिन्हें मेरी गली के लोग मेरे उसूल ही मेरी पहचान बन गए कुछ भी नहीं कहा है मगर देख भर लिया खुद ही की' नज़र में वो पशेमान हो गए जब से तुम्हारा साथ मुझे मिल गया सनम ज़िन्दगी के रास्ते आसान हो गए। डॉ0 राजीव जोशी बागेश्वर