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Showing posts from August, 2019

ग़ज़ल(अब बोल दे उल्फ़त में मज़ा है कि नहीं है)

*ग़ज़ल* ****** अब बोल दे उल्फ़त में  मज़ा है कि नहीं  है   देकर के भी दिल इसमें नफा है कि नहीं है। दिल हार गए जिस पे वो ही जान से प्यारा बोलो ये मोहब्बत की अदा है कि नहीं है। खंज़र न सही हाथ में पर जान तो ले ली मासूम की क़ातिल ये अदा है कि नहीं है। जुगनू ये हवा फूल महक चाँद सितारे अब तू ही बता इनमें ख़ुदा है कि नहीं है। करना यूँ ही अब बात ख़िलाफ़त में सद्र की इस दौर में हक़दारे सज़ा है कि नहीं है। ए पाक नज़र है क्यों तेरी गैर मुल्क़ पर नापाक तुझे शर्मो हया है कि नहीं है। है मेरी मुहब्बत की गली तुझसे ही रौशन ए जानेज़िगर तुझको पता है कि नहीं है।            'राजीव' के दिलवर हो या फिर हो कि सितमगर जो पूछते हो ज़ख़्म हरा है कि नहीं है। **** काफ़िया-आ रदीफ़- है कि नहीं है बह्र-221  1221  1221  122 ****** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।

ग़ज़ल (हरेक शख़्स को देना जवाब था शायद)

             *ग़ज़ल* ********* हरेक शख़्स को देना जवाब था शायद पुराने खेल का कोई हिसाब था शायद। भँवर तमाम क्यों मंडरा रहे उसी गुल पर चमन में एक वो ही बस गुलाब था शायद। गली ये आज जो रोशन नहीं हुई अब तक सनम के चेहरे पे अब तक हिज़ाब था शायद। वो एक चोट में ही कैसे टूट फूट गया शज़र वो शख़्त ही कुछ बेहिसाब था शायद। तुम्हारे पास है जो बस उसी में खुश रहना मसाफ़-ए-जीस्त का ये ही जवाब था शायद। ******** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर। ******* काफ़िया-आब रदीफ़- था शायद बह्र-1212  1122 1212  22

ग़ज़ल (वक़्त आने पे तो हम खून बहा देते हैं)

*******ग़ज़ल**** वक़्त आने पे तो हम खून बहा देते हैं सिर झुकाने से तो बेहतर है कटा देते हैं। हम हैं भारत के निवासी, न दगा देते हैं अपने आचार से ही खुद का पता देते हैं। दुश्मनी भी बड़ी सिद्दत से निभाते हैं हम हम महब्बत से महब्बत का सिला देते हैं। हम महावीर की उस पूण्य धरा के हैं सुत अपने भगवान को दिल चीर दिखा देते हैं। 'राम' का रूप दिखाते हैं सभी बच्चों में उनकी मुस्कान से मस्ज़िद का पता देते हैं। उनकी क्या बात करें हम वफ़ा की महफ़िल में हमको जो देख के दीपक ही बुझा देते हैं। किसकी आंखों में समंदर की सी गहराई है कोई पूछे जो तो राजीव बता देते हैं। ***** डॉ. राजीव जोशी, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डायट),बागेश्वर उत्तराखण्ड। ****** काफ़िया-आ रदीफ़-देते हैं बह्र-2122   1122  1122  22

ग़ज़ल (रिश्तों में कर रहे हैं ये व्यापार सब के सब।)

                    *ग़ज़ल* ********************** रिश्तों में कर रहे  हैं ये व्यापार सब के सब। दौलत के  दिख रहे हैं तलबगार सब के सब लथपथ पड़े हैं खून से अख़बार सब के सब बिकने लगे हैं कौड़ियों क़िरदार सब के सब। अतिचार  बढ़  गया  है  और अधर्म  भी बढ़ा जाने  कहाँ चले  गए  अवतार  सब के  सब। इंसाफ  की  उम्मीद  करें  भी तो किससे हम क़ातिल  बने  हुए  हों जो सरदार सब के सब। ये  धर्म  जाति  और  ये नफरत की राजनीति ये ही तो सियासत के  हैं औज़ार सब के सब। बारिश  हवा  नदी  व  शज़र   और   महताब करते  हैं  तेरे  इश्क़  का  इज़हार सब के सब। ********* काफ़िया-आर रदीफ़- सब के सब बह्र- 221   2121   1221  212 *********** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।