लघुकथा - "धुएँ का छल "
लघुकथा (धुएं का छल)
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कमल वर्मा एक आदर्श पति और जिम्मेदार पिता था, कम से कम घर में उसकी यही छवि थी। लेकिन बाहर की दुनिया में वह सिगरेट का ऐसा शौकीन था कि बिना कश लिए उसकी रगों में बेचैनी दौड़ने लगती। घर में उसने खुद पर यह नियम थोप रखा था कि परिवार के सामने धूम्रपान नहीं करेगा, पर आज छुट्टी के दिन ऑफिस न जाने के कारण उसकी तलब असहनीय हो गई।....उसने एक चाल चली। फोन उठाया और बनावटी गंभीरता से बोला, “अच्छा! क्या हुआ? कौन से हॉस्पिटल में है? हाँ, हाँ, मैं आ रहा हूँ!” फिर पत्नी की ओर मुड़ा, “सुधीर को पेट दर्द के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा, मैं देख आऊँ।” यह कहकर वह जैकेट पहनकर घर से निकल पड़ा।
....रात की ठंडी हवा चेहरे पर लगी तो हल्का सुकून महसूस हुआ, लेकिन दिमाग में बस एक ही सवाल गूंज रहा था—सिगरेट कहाँ मिलेगी? उसने कैंट, मालरोड और लाला बाजार की हर गली छान मारी, पर सब दुकानें बंद! गलियों में केवल ठंड से ठिठुरते आवारा कुत्ते थे, जो कभी-कभी उसकी आहट सुनकर गुर्रा उठते।
थक-हारकर चौघानपाटा की ओर बढ़ा। तभी, एक झुकी हुई दीवार के सहारे एक नेपाली मजदूर को खड़े होने की नाकाम कोशिश करते देखा। शराब के नशे में चूर वह बड़बड़ा रहा था, और उसके काले, फटे कोट की उंगलियों में आधी जली बीड़ी चमक रही थी।
कमल की आँखों में उम्मीद की चमक आ गई। उसने झुककर नेपाली को हिलाया, “ओ भाई, एक बीड़ी मिलेगी?” नेपाली ने ढुलमुल हाथ से अपनी जेब की ओर इशारा किया। कमल, जो आमतौर पर ऐसे मैले -कुचैले और नशे में धुत लोगों से दूर रहता था, किसी और परिस्थिति में वह उस आदमी की ओर देखता भी नहीं, लेकिन तलब के आगे संस्कार भी झुक गए।आज उसकी जेब में हाथ डालकर बीड़ी निकालने में जरा भी न हिचकिचाया।
जलती बीड़ी की ठुड्डी से अपनी बीड़ी सुलगाई और पहला गहरा कश लिया। जैसे ही धुआँ फेफड़ों में उतरा, बेचैनी शांत होने लगी। ठंडी हवा और जलते तंबाकू की खुशबू के बीच एक अजीब-सा सुख महसूस हुआ।
कमरे में सब कुछ शांत था, बस उसके भीतर एक सवाल धुएँ की तरह धीरे-धीरे घुल रहा था— क्या सिगरेट उसे पी रही थी, या वह सिगरेट को?
अंतर्द्वंद्व का धुआं धीरे-धीरे कमरे में घुलने लगा...
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डॉ राजीव जोशी
बागेश्वर।
9639473491
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 9 अप्रैल को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
आभार
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteप्रणाम सर धन्यवाद
Deleteवाह। वास्तविकता लिख दिया है आपने... आमतौर एक नशे करने वाले को एक दिन नशा न मिले तो वो पागल हो उठता है अजीब सी बेचैनी होती है ... मैंने कई लोगो को देखा जलती हुई सड़क पर गिरी बीड़ी सिगरेट फूंकते हुए...!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteआभार आदरणीया
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