ग़ज़ल (झूठ का कितना भी ऊंचा हो महल ढह जाएगा)


*ग़ज़ल*
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झूठ का कितना भी ऊँचा हो महल ढह जाएगा
वक़्त सच का एक दिन तो आईना दिखलाएगा।

क्यों न होगा आदमी गद्दार फिर तू ही बता
भूखे पेटों को अगर हुब्ब-ए वतन सिखलाएगा।

काट लो चाहे परों को हौंसला हो साथ तो
देखना फिर से वो पंछी एक दिन उड़ जाएगा।

कुछ तो कर ऐसा धरातल पर दिखाई दे जो काम
झूठ से इंसाँ को कब तक बोल तू बहलाएगा।

रश्क मत कर मेरी ग़ज़लों की कहन और धार पर
उम्र जब ढल जाएगी ये फ़न तुझे भी आएगा।

पहले छीना चैन अब तो नौकरी भी छीन ली
सावधानी गर न बरती जान से भी जाएगा।

माँ थी जब तक भूख क्या है कुछ पता मुझको न था
धूप में सर पर मेरे अब कौन आँचल लाएगा।

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काफिया-एगा
गैर मुरद्दफ़
बहर-2122 2122 2122 212
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।

Comments

  1. क्यों न होगा आदमी गद्दार फिर तू ही बता
    भूखे पेटों को अगर हुब्ब-ए वतन सिखलाएगा।

    लाजवाब। लगातार लिखने का प्रयत्न करो :)

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    1. प्रणाम गुरुदेव आभार आपका

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ जून २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 1 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. वाह!बेहतरीन@

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  5. यथार्थवादी लेखन, वाकई इंसान को आईना दिखाता आज का यह समय बहुत महंगा पड़ रहा है

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  6. वाह बेहतरीन 👌

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद

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  7. ''माँ थी जब तक भूख क्या है कुछ पता मुझको न था
    धूप में सर पर मेरे अब कौन आँचल लाएगा।''

    मेरे लिए भावुक पंक्ति...।
    बहुत बढ़िया।

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    1. बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूँ

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  8. व्वाहहहह..
    बेहतरीन ग़ज़ल..
    सादर..

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  9. आभार आपका आदरणीय

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