काफ़िया-अर
रदीफ़-देखे हैं
बह्र- 22 22 22 22 22 22
*********
मेरी आँखों ने ऐसे मंजर देखे हैं
भीख माँगते छोटे कोमल कर देखे हैं।
खून पसीने से तन उनके तर देखे हैं।
हवादार बिन दीवारों के घर देखे हैं
तन पर उजले कपड़े ऊँची बातें दिन भर
और रात में बदन नोचते नर देखे हैं।
दे कर अमृत दूजों को ख़ुद गरल पिएं जो
कुछ ऐसे कलयुग में भी शंकर देखे हैं।
जिसने भी मेहनत से मंज़िल पाई है
नहीं मील के कभी कोई पत्थर देखे हैं।
*****
डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।
रदीफ़-देखे हैं
बह्र- 22 22 22 22 22 22
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मेरी आँखों ने ऐसे मंजर देखे हैं
भीख माँगते छोटे कोमल कर देखे हैं।
खून पसीने से तन उनके तर देखे हैं।
हवादार बिन दीवारों के घर देखे हैं
तन पर उजले कपड़े ऊँची बातें दिन भर
और रात में बदन नोचते नर देखे हैं।
दे कर अमृत दूजों को ख़ुद गरल पिएं जो
कुछ ऐसे कलयुग में भी शंकर देखे हैं।
जिसने भी मेहनत से मंज़िल पाई है
नहीं मील के कभी कोई पत्थर देखे हैं।
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 18 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद सर्
Deleteवाह बहुत सुंदर 👌
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर।।
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteबहुत खूब साहब।
ReplyDeleteशुक्रिया डॉ.!ज़फ़र
Deleteवाह शानदार
ReplyDeleteबेकरारी से वहशत की जानिब
धन्यवाद आभार
Deleteबहुत दिनों के बाद एक सुन्दर रचना।
ReplyDeleteप्रणाम सर्
Deleteधन्यवाद स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए
यथार्थ अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..लाजवाब....
आभार
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