काफिया- अते
रदीफ़-हैं।
बह्र-1222  1222  1222  1222
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सनम को देख कर क्यों रात में जुगनू बहकते हैं
निकलते हैं वो जब छत पर तो बादल भी घुमड़ते हैं।

सनम जब बोलते मेरे तो मुँह से फूल झरते हैं
महकती हैं फ़िज़ाएँ भी गली से जब गुजरते हैं।

वो बिखरा कर के लट अपनी किसी गुलशन से जब गुजरें
घटा उनको समझ कर मोर निस दिन नाँच करते हैं

कभी वो जब भरी महफ़िल में सज धज कर जो आ जाएं
न जाने क्यों ज़हाँ वाले मेरी किश्मत से जलते हैं।

लबों को क्या कहूँ जैसे गुलाबी पंखुड़ी कोई
समझ उनको ही गुल भँवरों के दिल क्यों कर मचलते हैं।

हमारे मन के मंदिर में बसी मूरत तुम्हारी है
तुम्हीं को याद करते हैं  तुम्हारा नाम भजते हैं।
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।

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