*गीतिका*
पाँव बढ़ाना सोच समझकर काँटे दर-दर बिखरे हैं।
सहज नहीं है प्रेम डगर ये पग-पग खंजर बिखरे हैं।
हार नहीं है भिन्न जीत से ये तो पहली सीढ़ी है
लक्ष्य बना फिर चल हिम्मत से ढेरों अवसर बिखरे हैं।
पेड़ कोई फलदार था कितना ये पता करना गर हो
उस बगिया में जा कर देखो कितने पत्थर बिखरे हैं।
छत, दरवाजे, आंगन घर का खिड़की और सब दीवारें
रंग रोगन है बाहर से पर अंदर से घर बिखरे हैं।
जीवन है संघर्ष ये हर पल इसका मोल तो पहचानो
फूल नहीं जीवनपथ पर तो लाखों कंकर बिखरे हैं।
सुर और साज सजें भी कैसे, कैसे महफ़िल में गाऊँ
हमदम जब से साथ नहीं हैं गीतों के स्वर बिखरे हैं।
देवभूमि उत्तरांचल है ये आके तुम भी देखो तो
इस धरती के कण-कण में तो विष्णु-शंकर बिखरे हैं।
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।
भावपूर्ण और अत्यंत सुंदर गीतिका ।
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