ग़ज़ल
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तू अगर साथ हो आसान सफर लगता है
वरना' अब ख़ुद की ही परछाई से डर लगता है।
जानवर भी हैं वफ़ादार अधिक इन्शाँ से
आज इन्शान को इन्शान से डर लगता है।
मुझको छूने भी न पाई है बलाएं कोई
ये मेरी माँ की दुवाओं का असर लगता है।
छू लिया चाँद मगर कुछ तो कमी है अब भी
हाँसिले ज़ीस्त बिना माँ के सिफ़र लगता है।
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काफ़िया-अर
रदीफ़-लगता है
बहर-2122 1122 1122 22
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डॉ.राजीव जोशी
बागेश्वर।
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तू अगर साथ हो आसान सफर लगता है
वरना' अब ख़ुद की ही परछाई से डर लगता है।
जानवर भी हैं वफ़ादार अधिक इन्शाँ से
आज इन्शान को इन्शान से डर लगता है।
मुझको छूने भी न पाई है बलाएं कोई
ये मेरी माँ की दुवाओं का असर लगता है।
छू लिया चाँद मगर कुछ तो कमी है अब भी
हाँसिले ज़ीस्त बिना माँ के सिफ़र लगता है।
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काफ़िया-अर
रदीफ़-लगता है
बहर-2122 1122 1122 22
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डॉ.राजीव जोशी
बागेश्वर।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 9 मई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आभार आदरणीया
Deleteवाह सुंदर गजल
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteबहुत खूब। काफी दिनों के बाद।
ReplyDeleteप्रणाम सर
Deleteआभार
सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteमुझको छूने भी न पाई है बालाएं कोई, ये मेरी माँ की दुवाओं का असर लगता है..............
ReplyDeleteबालाएं और बलाएं, दोनों ही फिट बैठ रही हैं !
धन्यवाद ध्यानाकर्षण के लिए आभार
Deleteबलाएँ ही लिखना था
बहुत सारगर्भित बात लिख आपने गगन जी --
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteसुंदर रचना | माँ पर दोनों अंतिम शेर लाजवाब हैं | सादर --
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