ग़ज़ल (झूठ का कितना भी ऊंचा हो महल ढह जाएगा)
*ग़ज़ल* ******* झूठ का कितना भी ऊँचा हो महल ढह जाएगा वक़्त सच का एक दिन तो आईना दिखलाएगा। क्यों न होगा आदमी गद्दार फिर तू ही बता भूखे पेटों को अगर हुब्ब-ए वतन सिखलाएगा। काट लो चाहे परों को हौंसला हो साथ तो देखना फिर से वो पंछी एक दिन उड़ जाएगा। कुछ तो कर ऐसा धरातल पर दिखाई दे जो काम झूठ से इंसाँ को कब तक बोल तू बहलाएगा। रश्क मत कर मेरी ग़ज़लों की कहन और धार पर उम्र जब ढल जाएगी ये फ़न तुझे भी आएगा। पहले छीना चैन अब तो नौकरी भी छीन ली सावधानी गर न बरती जान से भी जाएगा। माँ थी जब तक भूख क्या है कुछ पता मुझको न था धूप में सर पर मेरे अब कौन आँचल लाएगा। ******* काफिया-एगा गैर मुरद्दफ़ बहर-2122 2122 2122 212 ******* डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।