ग़ज़ल
#ग़ज़ल ******************************* ये ज़िंदगी है कर्ज़ और बही में कुछ क़रार है अदा हुई है कुछ मगर अभी भी कुछ उधार है। जहाँ भी देखता हूँ मैं दरार ही दरार है जली भुनी है दोपहर ख़फा खफ़ा बयार है। रहो भले ही ख़ुशफहम स्वयं को देख देख कर पता चलेगा अंत में कि कौन देनदार है। चले थे साथ काफ़िले जो दूर सब निकल गए हमारे साथ अब तो बस गुबार ही गुबार है। उड़ा भँवर जो एक गुल से दूसरे पे बैठता बता रहा है कौन कौन फूल दागदार है। वो शाम फिर से आएगी ढले तुम्हारे साथ जो भले तुम्हें न हो मगर हमें तो इंतज़ार है। **** काफ़िया- आर रदीफ़- है बह्र-1212 1212 1212 1212 ******************* डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।