काफ़िया-आने रदीफ़- हो गए बह्र-2122 2122 2122 212 ********** वक़्त की रफ्तार में ये क्या फसाने हो गए खो गया बच्चों का बचपन वो सयाने हो गए। बस किताबी ज्ञान में उलझा हुआ है बचपना खेलना मिट्टी में कंचों से जमाने हो गए। वो किताबों से न जिनका था कोई रिश्ता उन्हें ज्यों संभाला होश तो पैसे कमाने हो गए। डर नहीं है आदमी को डोलती इंसानियत फर्ज़ से बचने के भी सौ सौ बहाने हो गए। कल सियासत के भी कुछ आदाब थे आदर्श थे आज ये बस ज़ुर्म ढकने के ठिकाने हो गए। शब्द जो भी थे ज़ुबाँ पर लेखनी में आ गए हर्फ़ कागज़ पर जो उतरे तो तराने हो गए। ****** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।
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