ग़ज़ल (हरेक शख़्स को देना जवाब था शायद)

             *ग़ज़ल*
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हरेक शख़्स को देना जवाब था शायद
पुराने खेल का कोई हिसाब था शायद।

भँवर तमाम क्यों मंडरा रहे उसी गुल पर
चमन में एक वो ही बस गुलाब था शायद।

गली ये आज जो रोशन नहीं हुई अब तक
सनम के चेहरे पे अब तक हिज़ाब था शायद।

वो एक चोट में ही कैसे टूट फूट गया
शज़र वो शख़्त ही कुछ बेहिसाब था शायद।

तुम्हारे पास है जो बस उसी में खुश रहना
मसाफ़-ए-जीस्त का ये ही जवाब था शायद।
********
डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।
*******
काफ़िया-आब
रदीफ़- था शायद
बह्र-1212  1122 1212  22

Comments

  1. गली ये आज जो रोशन नहीं हुई अब तक
    सनम के चेहरे पे अब तक हिज़ाब है शायद।

    बहुत खूब :)

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    1. प्रणाम सर् आभार

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " मंगलवार 20 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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  3. वाह बहुत सुंदर लाज़वाब गज़ल।

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  4. वाह!!!
    लाजवाब गजल...

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    Replies
    1. धन्यवाद
      प्रणाम

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