एक फ़िज़ूल ग़ज़ल काफ़िया-आ रदीफ़-लगता है बहर-22 22 22 22 22 22 2 ************ साथ गुजारा था जो पल वो सपना लगता है हर चेहरे में क्यों मुझको कुछ तुमसा लगता है। ज़ख़्म बदन पर अगर लगे तो भर ही जाएगा लेकिन दिल का घाव हमेशा ताजा लगता है। दिल को कोई ऎसे ही कब भाता है बोलो कोई' पुराना अपना तो ये रिश्ता लगता है। मातृभूमि, माँ और माशूका अलग अलग हैं ये लेकिन इन तीनों पर जान लुटाना अच्छा लगता है। रात रात भर बूढी माँ के अश्क़ बहे होंगे रोज सवेरे उसका तकिया गीला लगता है। मेरी माँ ने मेरे हक़ में दुवा करी होंगी इसी लिए तो टली बलाएं ऐसा लगता है। इक मन्दिर में कल मैंने खूब चढ़ाया सोना अब तो ईश्वर मिल जाएंगे पक्का लगता है। **** फ़िज़ूल टाइम्स FIJOOLTIMES.BLOGSPOT.COM ****** डॉ.राजीव जोशी बागेश्वर।
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