ग़ज़ल(घूंघट से बादलों के चंदा निकल रहा है)
*******ग़ज़ल***** घूंघट से बादलों के चंदा निकल रहा है रखना ख़याल दिल का मौसम बदल रहा है। महफ़िल में आ गए क्या सरकार मेरे दिल के क्यों धड़कनें बढ़ी हैं क्यों दिल मचल रहा है । रहिमन की ये ज़मीं है और राम की धरा भी मज़हब के नाम फिर क्यों ये मुल्क़ जल रहा है। तासीर एक सी है मिट्टी की और नमी की मसला है बीज कैसा पौधा निकल रहा है। कसमें वफ़ा की खाता है बात बात पर वो हर मोड़ पर मगर क्यों चेहरा बदल रहा है। बागों में खिल उठी हैं कलियाँ चटक चटक कर तेरे बगैर साजन सावन ये खल रहा है। कुछ इस तरह चमन की बदली हवा ने करवट जो बागबाँ था वो ही कलियाँ मसल रहा है। ***** काफ़िया-अल रदीफ़- रहा है बह्र-221 2122 221 2122 ***** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।