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ग़ज़ल(घूंघट से बादलों के चंदा निकल रहा है)

*******ग़ज़ल***** घूंघट से बादलों के चंदा निकल रहा है रखना ख़याल दिल का मौसम बदल रहा है। महफ़िल में आ गए क्या सरकार मेरे दिल के क्यों धड़कनें बढ़ी हैं क्यों दिल मचल रहा है । रहिमन की ये ज़मीं है और राम की धरा भी मज़हब के नाम  फिर क्यों ये मुल्क़ जल रहा है। तासीर एक सी है मिट्टी की और नमी की मसला है बीज कैसा पौधा निकल रहा है। कसमें वफ़ा की खाता है बात बात पर वो हर मोड़ पर मगर क्यों चेहरा बदल रहा है। बागों में खिल उठी हैं कलियाँ चटक चटक कर तेरे बगैर साजन सावन ये खल रहा है। कुछ इस तरह चमन की बदली हवा ने करवट  जो बागबाँ था वो ही कलियाँ मसल रहा है। ***** काफ़िया-अल रदीफ़- रहा है बह्र-221  2122  221  2122 ***** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।
काफ़िया-आने रदीफ़- हो गए बह्र-2122    2122     2122     212 ********** वक़्त की रफ्तार में ये क्या फसाने हो गए खो गया बच्चों का बचपन वो सयाने हो गए। बस किताबी ज्ञान में उलझा हुआ है बचपना खेलना मिट्टी में कंचों से जमाने हो गए। वो किताबों से न जिनका था कोई रिश्ता उन्हें ज्यों संभाला होश तो पैसे कमाने हो गए। डर नहीं है आदमी को डोलती इंसानियत फर्ज़ से बचने के भी सौ सौ बहाने हो गए। कल सियासत के भी कुछ आदाब थे आदर्श थे आज ये बस ज़ुर्म ढकने के ठिकाने हो गए। शब्द जो भी थे ज़ुबाँ पर लेखनी में आ गए हर्फ़ कागज़ पर जो उतरे तो तराने हो गए। ****** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।

ग़ज़ल(अब बोल दे उल्फ़त में मज़ा है कि नहीं है)

*ग़ज़ल* ****** अब बोल दे उल्फ़त में  मज़ा है कि नहीं  है   देकर के भी दिल इसमें नफा है कि नहीं है। दिल हार गए जिस पे वो ही जान से प्यारा बोलो ये मोहब्बत की अदा है कि नहीं है। खंज़र न सही हाथ में पर जान तो ले ली मासूम की क़ातिल ये अदा है कि नहीं है। जुगनू ये हवा फूल महक चाँद सितारे अब तू ही बता इनमें ख़ुदा है कि नहीं है। करना यूँ ही अब बात ख़िलाफ़त में सद्र की इस दौर में हक़दारे सज़ा है कि नहीं है। ए पाक नज़र है क्यों तेरी गैर मुल्क़ पर नापाक तुझे शर्मो हया है कि नहीं है। है मेरी मुहब्बत की गली तुझसे ही रौशन ए जानेज़िगर तुझको पता है कि नहीं है।            'राजीव' के दिलवर हो या फिर हो कि सितमगर जो पूछते हो ज़ख़्म हरा है कि नहीं है। **** काफ़िया-आ रदीफ़- है कि नहीं है बह्र-221  1221  1221  122 ****** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।

ग़ज़ल (हरेक शख़्स को देना जवाब था शायद)

             *ग़ज़ल* ********* हरेक शख़्स को देना जवाब था शायद पुराने खेल का कोई हिसाब था शायद। भँवर तमाम क्यों मंडरा रहे उसी गुल पर चमन में एक वो ही बस गुलाब था शायद। गली ये आज जो रोशन नहीं हुई अब तक सनम के चेहरे पे अब तक हिज़ाब था शायद। वो एक चोट में ही कैसे टूट फूट गया शज़र वो शख़्त ही कुछ बेहिसाब था शायद। तुम्हारे पास है जो बस उसी में खुश रहना मसाफ़-ए-जीस्त का ये ही जवाब था शायद। ******** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर। ******* काफ़िया-आब रदीफ़- था शायद बह्र-1212  1122 1212  22

ग़ज़ल (वक़्त आने पे तो हम खून बहा देते हैं)

*******ग़ज़ल**** वक़्त आने पे तो हम खून बहा देते हैं सिर झुकाने से तो बेहतर है कटा देते हैं। हम हैं भारत के निवासी, न दगा देते हैं अपने आचार से ही खुद का पता देते हैं। दुश्मनी भी बड़ी सिद्दत से निभाते हैं हम हम महब्बत से महब्बत का सिला देते हैं। हम महावीर की उस पूण्य धरा के हैं सुत अपने भगवान को दिल चीर दिखा देते हैं। 'राम' का रूप दिखाते हैं सभी बच्चों में उनकी मुस्कान से मस्ज़िद का पता देते हैं। उनकी क्या बात करें हम वफ़ा की महफ़िल में हमको जो देख के दीपक ही बुझा देते हैं। किसकी आंखों में समंदर की सी गहराई है कोई पूछे जो तो राजीव बता देते हैं। ***** डॉ. राजीव जोशी, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डायट),बागेश्वर उत्तराखण्ड। ****** काफ़िया-आ रदीफ़-देते हैं बह्र-2122   1122  1122  22

ग़ज़ल (रिश्तों में कर रहे हैं ये व्यापार सब के सब।)

                    *ग़ज़ल* ********************** रिश्तों में कर रहे  हैं ये व्यापार सब के सब। दौलत के  दिख रहे हैं तलबगार सब के सब लथपथ पड़े हैं खून से अख़बार सब के सब बिकने लगे हैं कौड़ियों क़िरदार सब के सब। अतिचार  बढ़  गया  है  और अधर्म  भी बढ़ा जाने  कहाँ चले  गए  अवतार  सब के  सब। इंसाफ  की  उम्मीद  करें  भी तो किससे हम क़ातिल  बने  हुए  हों जो सरदार सब के सब। ये  धर्म  जाति  और  ये नफरत की राजनीति ये ही तो सियासत के  हैं औज़ार सब के सब। बारिश  हवा  नदी  व  शज़र   और   महताब करते  हैं  तेरे  इश्क़  का  इज़हार सब के सब। ********* काफ़िया-आर रदीफ़- सब के सब बह्र- 221   2121   1221  212 *********** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।
                          *ग़ज़ल * क़रीब पा के तुझे फिर न दिल मचल जाए मेरे ज़िगर में कोई रोग फिर न पल जाए। नक़ाब रुख़ से जो तेरे कभी फिसल जाए मुझे तो डर है कि आशिक़ कहीं न जल जाए। यही है आरज़ू बस इक यही तमन्ना है तुम्हारी दीद के संग दम मेरा निकल जाए। मैं फूँक फूँक के रखता हूँ हर क़दम ऐसे कहीं उन्हें न मेरी बात कोई खल जाए। कि धर्म जाति सियासत ये तीन अज़गर हैं न जाने कौन कहाँ कब किसे निगल जाए। दुआ है माँ की मेरे साथ सर पे आँचल है छुवन में माँ की वो दम है क़ज़ा भी टल जाए। तू है इंसान न घबरा किसी भी मुश्किल में वही है आदमी  हर हाल में जो ढल जाए अभी समय है कि मेहनत को तू बना साधन कहीं न वक़्त यूँ ही हाथ से निकल जाए। ********* काफ़िया-अल रदीफ़- जाए बह्र- 1212   1122   1212   22 ******** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।
                              ** विरह वेदना**                                 *********** दिल के तारों को झंकृत कर, मेरी चाहत को 'स्वर' दो हाथ फेर माथे पर मेरी, मेरे क्रंदन को हर लो। कुड़-कुड़ पतिया सी देह भयी, विरह ताप की ज्वाला में, आकर के मुझको प्राण-प्रिये!,शीतल बाँहो में भर लो ।।" मेरे माथे की लाली को, मिलने का ऐसा वर दो विरह व्यथा के शूल सेज पर,तुम अपना करतल धर दो। अँगार पोत सम फूल बने, पानी ज्वाला की बूंदें आकर के मेरे प्राण-प्रिये!,इनके तापस को हर लो।। बन कर मोती आशाओं के, मेरी आँखों से झर लो तुम इस 'तन' का हार बनो जी,'मन' का मुझको 'मनका' कर लो। विरह व्याल डसते हैं निस दिन, मेरी पीड़ा को समझो बना मुझे मदिरा का प्याला, अपने अधरों से धर लो।। *****                              डॉ0 राजीव जोशी                              बागेश्वर,उत्तराखंड
काफिया- अते रदीफ़-हैं। बह्र-1222  1222  1222  1222 †********** सनम को देख कर क्यों रात में जुगनू बहकते हैं निकलते हैं वो जब छत पर तो बादल भी घुमड़ते हैं। सनम जब बोलते मेरे तो मुँह से फूल झरते हैं महकती हैं फ़िज़ाएँ भी गली से जब गुजरते हैं। वो बिखरा कर के लट अपनी किसी गुलशन से जब गुजरें घटा उनको समझ कर मोर निस दिन नाँच करते हैं कभी वो जब भरी महफ़िल में सज धज कर जो आ जाएं न जाने क्यों ज़हाँ वाले मेरी किश्मत से जलते हैं। लबों को क्या कहूँ जैसे गुलाबी पंखुड़ी कोई समझ उनको ही गुल भँवरों के दिल क्यों कर मचलते हैं। हमारे मन के मंदिर में बसी मूरत तुम्हारी है तुम्हीं को याद करते हैं  तुम्हारा नाम भजते हैं। ****** डॉ. राजीव जोशी बागेश्वर।