ग़ज़ल (रिश्तों में कर रहे हैं ये व्यापार सब के सब।)
*ग़ज़ल*
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रिश्तों में कर रहे हैं ये व्यापार सब के सब।
दौलत के दिख रहे हैं तलबगार सब के सब
लथपथ पड़े हैं खून से अख़बार सब के सब
बिकने लगे हैं कौड़ियों क़िरदार सब के सब।
अतिचार बढ़ गया है और अधर्म भी बढ़ा
जाने कहाँ चले गए अवतार सब के सब।
इंसाफ की उम्मीद करें भी तो किससे हम
क़ातिल बने हुए हों जो सरदार सब के सब।
ये धर्म जाति और ये नफरत की राजनीति
ये ही तो सियासत के हैं औज़ार सब के सब।
बारिश हवा नदी व शज़र और महताब
करते हैं तेरे इश्क़ का इज़हार सब के सब।
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काफ़िया-आर
रदीफ़- सब के सब
बह्र- 221 2121 1221 212
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।
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रिश्तों में कर रहे हैं ये व्यापार सब के सब।
दौलत के दिख रहे हैं तलबगार सब के सब
लथपथ पड़े हैं खून से अख़बार सब के सब
बिकने लगे हैं कौड़ियों क़िरदार सब के सब।
अतिचार बढ़ गया है और अधर्म भी बढ़ा
जाने कहाँ चले गए अवतार सब के सब।
इंसाफ की उम्मीद करें भी तो किससे हम
क़ातिल बने हुए हों जो सरदार सब के सब।
ये धर्म जाति और ये नफरत की राजनीति
ये ही तो सियासत के हैं औज़ार सब के सब।
बारिश हवा नदी व शज़र और महताब
करते हैं तेरे इश्क़ का इज़हार सब के सब।
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काफ़िया-आर
रदीफ़- सब के सब
बह्र- 221 2121 1221 212
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।
बहुत सुन्दर।
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