*ग़ज़ल*
क़रीब पा के तुझे फिर न दिल मचल जाए
मेरे ज़िगर में कोई रोग फिर न पल जाए।

नक़ाब रुख़ से जो तेरे कभी फिसल जाए
मुझे तो डर है कि आशिक़ कहीं न जल जाए।

यही है आरज़ू बस इक यही तमन्ना है
तुम्हारी दीद के संग दम मेरा निकल जाए।

मैं फूँक फूँक के रखता हूँ हर क़दम ऐसे
कहीं उन्हें न मेरी बात कोई खल जाए।

कि धर्म जाति सियासत ये तीन अज़गर हैं
न जाने कौन कहाँ कब किसे निगल जाए।

दुआ है माँ की मेरे साथ सर पे आँचल है
छुवन में माँ की वो दम है क़ज़ा भी टल जाए।

तू है इंसान न घबरा किसी भी मुश्किल में
वही है आदमी  हर हाल में जो ढल जाए

अभी समय है कि मेहनत को तू बना साधन
कहीं न वक़्त यूँ ही हाथ से निकल जाए।

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काफ़िया-अल
रदीफ़- जाए
बह्र- 1212   1122   1212   22
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।

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