ग़ज़ल
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तुम चले जाओ जो महफ़िल से क़जा हो जाए
कुछ न हो पास तो अम्बर ही रिदा हो जाए।

ईट गारे का मकाँ हो या कोई झोपड़ हो
साथ मिल जाए तुम्हारा तो कदा हो जाए।

मेरे हर गीत में तुम बन के बहर बसती हो
मैं अगर गाऊँ तो महफ़िल को शुब्हा हो जाए।

हाथ जोड़ूँ तो मना लूँ मैं किसी ईश्वर को
हाथ फैलाऊं तो फिर हक़ में दुआ हो जाए।

चल पड़ा नाम बदलने का ये फैशन कैसा
मैं अगर खुद का बदल लूं तो अदा हो जाए।
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डॉ. राजीव जोशी
बागेश्वर।
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काफ़िया-आ
रदीफ़-हो जाए
बह्र-2122  1122  1122   22

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