एक फ़िज़ूल ग़ज़ल
काफ़िया-आ
रदीफ़-लगता है
बहर-22  22 22  22  22  22  2
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साथ गुजारा था जो पल वो सपना लगता है
हर चेहरे में क्यों मुझको कुछ तुमसा लगता है।

ज़ख़्म बदन पर अगर लगे तो भर ही जाएगा
लेकिन दिल का घाव हमेशा ताजा लगता है।

दिल को कोई ऎसे ही कब भाता है बोलो
कोई' पुराना अपना तो ये रिश्ता लगता है।

मातृभूमि, माँ और माशूका अलग अलग हैं ये लेकिन
इन तीनों पर जान लुटाना अच्छा लगता है।

रात रात भर बूढी माँ के अश्क़ बहे होंगे
रोज सवेरे उसका तकिया गीला लगता है।

मेरी माँ  ने मेरे हक़ में दुवा करी होंगी
इसी लिए तो टली बलाएं ऐसा लगता है।

इक मन्दिर में कल मैंने खूब चढ़ाया  सोना
अब तो ईश्वर मिल जाएंगे पक्का लगता है।
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फ़िज़ूल टाइम्स
FIJOOLTIMES.BLOGSPOT.COM
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डॉ.राजीव जोशी
बागेश्वर।


Comments

  1. वाह ..
    हर शेर दिल को छूता है ... ख़ास कर माँ का तकिया गीला लगता है ... लाजवाब ...

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    1. बहुत बहुत आभार सर नमन आपको

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  2. निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' १६ अप्रैल २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक में ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीया देवी नागरानी जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

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  3. धन्यवाद आदरणीय

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  4. हर शेर दिल को छूता

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